सोमवार, 2 फ़रवरी 2009

* राजस्थानी संस्क‘ति की धरोहर कावड़गीत

फकीर मोहम्मद घोसी
उड़ते खग जिस ओर मुंह किए, समझ नीड़ निज प्यारा, अरूण यह मधुमय देश हमारा । राष्ट्रकवि की ये पंक्तिया संदेश देती है कि हमारी संस्कति में आत्मसात करने की ‘ाक्ति है, अपनापन है जिसके कारण सभी संस्कतियां यहां अपने पांव पसारती रही है और भारतीय संस्कति में घुल-मिलती रही है। इसी वजह से भारतीय संस्कति को विविधता में एकता की संस्कति माना जाता रहा है।समय जैसे-जैसे पंख लगाकर उड़ रहा है उसी रफ्तार के साथ हम अपनी संस्कति को भूलते भी जा रहे हैं। कई प्राचीन कलाएं एवं संस्कति के अंग लुप्त होते जा रहे हैं। हमारे यहां भी पिश्चमी संस्कति अपने पांव पसारती जा रही है और कुछ साइंस का भी कमाल है कि हम मशीनों के गुलाम बनते जा रहे हैं। भारतीय संस्क‘ति की पहचान रहे हैं लोक गीत, लोक कला, लोक साहित्य और लोक परम्परा अब काफी हद तक विलुप्ति के कगार पर पहुंच चुकी है। भारतीय संस्क‘ति की पहचान एवं जान लोकगीत भी अब विलुप्ति के द्वार पर खड़े हैं। ßलोकगीत प्रक‘ति के मुंह बोलते चित्र हैÞ अगर इन्हें सहेजा नहीं गया तो ये भी लुप्त हो जाएंगे। इसी परम्परा से जुड़े वासुदेव पंथ से जुडे कावड़ जाति के गीत भी विलुप्ति के द्वार पर है, ये यदा-कदा ही सुनने को मिलते है। विक्रम संवत के माघ माह में जब सदीZ अपने चरम पर होती है। कावड़ जाति के लोग अपने बदन पर पानी से तरबतर कंबल ओढ़ कर अलसुबह (अंधेरे-अंधेरे) गली मोहल्लों में जाते हैं और अपनी मायड़ भाशा में कावड़ जाति का गीत सुनाते है। जिसके द्वारा ये लोगों को आशीर्वचन देते हैं और बदले में ग‘हिणियों से ये पुराने कपड़े, अनाज व रूपयों का दान लेते हैं। ग‘हिणियां भी बहुत ही आदर-भाव के साथ इनके गीत को सुनती है और बदले में यथासम्भव दान देती है। ग‘हिणियां इन्हें अपने द्वार से कुछ न कुछ दान अवश्य देकर विदा करती है। ये सदा युगल (दो पुरूश) के रूप में गाते हैं। इनकी भाशा बहुत ही मधुर होती है।ऐसा ही एक युगल (गणेश एवं जीवाराम) इन दिनों फालना स्टेशन, जिला-पाली (राजस्थान) में नजर आया। इनसे पूछने पर बताया कि छीबा गांव (जिला-सिरोही) के निवासी है। गंगा मैया के अपने आपको पुजारी बताते हैं। वे अपनी वंश परम्परा को कायम रखने के लिए दूर-दूर तक जाते हैं। केवल एक माह में दान-पुण्य इतना नहीं मिल पाता कि जिससे साल भर पूरे परिवार का भरण-पोशण हो सके इसलिए वे अन्य कार्य भी करते हैं। मगर अपनी परम्परा को विलुप्ति से बचाने के लिए अभी भी सदीZ के माघ मास में कावड़ जाति की परम्परा का निर्वहन कर रहे हैं।

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