आदम की जात
भूल गई अपनी औकात
इंंसानियत से पा रही नजात
शराफत को दे रही मात।
बस इसी सोच मे
कुछ करना है
अपना पेट भरना है
सत्य के मार्ग से
अहिंसा की डगर से
त्याग की पगडण्डी से
प्रेम की नाव मझघार मे छोड़कर
आदमियत को घकेलकर
मानवता को भूलकर
एक ही रट-रटाये
स्वारथ मे मन लगाये
आज का मानव
बन रहा सम दानव।
न करता कोई दोस्ती पर नाज
भाई पर भाई गिराते गाज
सभी मिटाते स्वारथ की खाज।
उड़ा रहे परोपकार का मखोल
ईमान बेच रहे कोड़ियो के मोल
बेईमानी से कर रहे गोल।
वफादारी का नाम नही है।
सीधे-सादे का दुनियां मे काम नही हैै
योग्यता के लिए सम्मान नही है।
पाप से घरती जा रही है फटी
ईष्र्या का सर्वत्र है बोलबाला
द्वेष दूर कर रहे है
इंसान को इंसान से।
`घोसी´ की यही चाहत
न कोई हो आहत
सभी को मिले एक दूजे से राहत
तभी कायम होगी भलमानसहत
पाएगा तब मानव जहां मे
जहांगिरी मिजाज।
गुरुवार, 5 फ़रवरी 2009
``मानव´´
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