बुधवार, 4 फ़रवरी 2009

संस्कृति के मुंह बोलते चित्र है : लोकगीत

राजस्थान का लोक साहित्य बहुत समृद्ध रहा हैं। यहाँ की संस्कृति के विविध चित्र लोक साहित्य में यत्र-तत्र मणी रत्नों की तरह बिखरे पड़े हैं। संस्कृति विवेक बुद्धि का जीवन भली प्रकार मान लेने का नाम है। संस्कृति मनुष्य के भूत-वर्तमान और भावी जीवन का सर्वांगपूर्ण प्रकार है। हमारे जीवन का ढंग हमारी संस्कृति हैं, संस्कृति हवा में नहीं तैरती उसका मोतीमान रूप होता है। जीवन के नानाविद् रूप ही संस्कृति हैं। संस्कृति जिन्दगी का एक तरिका है और यह तरिका सदियों से जमा होकर उस समाज पर छाया रहता है जिसमें हम जन्म लेते है। मांजी सवारी जीवन वृद्धि तथा जीवनचर्या ही संस्कृति है
राजस्थान की अपनी ऐतिहासिक पहचान है यहां की धरती वीर भोग्या वसुन्धरा के लिए सुप्रसिद्ध रही है। यहाँ की ढ़ांणी-ढ़ांणी लियोनाडास पैदा करती रही है और थरमोपोली युद्ध भूमियों को राजस्थान ने खुब देखा है। जिस अंचल विशेष का इतिहास इतना उज्ज्वल उसका सांस्कृतिक परिवेश कितना सशक्त होगा ? लोकगीत, लोककथा, लोकगाथा, लोकनाट्य आदि के विपुल भण्डार वाली संस्कृति न केवल राजस्थान की धरोहर है अपितु सम्पूर्ण भारत के लिए गौरवानुभूति है।
राजस्थान की अपनी संस्कृति और परम्परा है। रंगों से भरपूर यह मरूप्रदेश, शौर्य, पराक्रम और बलिदान के लिए जितना विख्यात रहा हैं, उतना ही यहाँ मनाये जाने वाले अनेक त्यौहारों और उत्सवों के लिए भी प्रसिद्ध रहा है। पूरे वर्ष में यहाँ अनेक पर्व एवम् उत्सव मनायें जाते है और हर पर्व तथा उत्सव अपने विशेष रीति-रिवाज और परम्पराओं से जुड़े हुए है।
विभिन्न अवसरों पर गाये जाने वाले लोकगीत जहाँ आज भी इन परम्पराओं को संजोये हुए हैं, वहीं यहाँ के जन-जीवन में नये उत्साह और हर्षोल्लास का संचार करते हैं। लोकगीतों के माध्यम से जहाँ त्यौहारों और पर्वों से जुड़ी कथाओं की अभिव्यक्ति होती हैं, वही गाने वालों और सुनने वालों का मन आह्लाद से झूम उठता हैं। लोकसाहित्य में लोकगीतों का एक विशिष्ट स्थान है। ये राजस्थानी लोकगीत इतने ही प्राचीन है जितनी मरूप्रदेश की आम जनता है।
इस लोकजीवन में डूब कर जिसने इस आनन्द का आस्वादन नहीं किया हैं उसके लिए राजस्थानी लोकगीतों के सम्बंध में कहना और लिखना उतना ही कठिन है जितना समुद्र के किनारे खड़े होकर उसकी गहराई को नापना। वस्तुत: यह विराट के सामने वामन की सी स्थिति है।
लोकगीत आम जनता की भाषा है, उसका नाद है, उनके हृदय का स्वर और जनमानस की भावनाओं की संगीतमय अभिव्यक्ति हैं। लोकगीतों में राजस्थान की संस्कृति, रीति-रिवाज तथा संगीतमय इतिहास परिलक्षित होता है। लोकगीतों में लोक समूह का काव्य, गीत, संगीत, संस्कृति, रीति-रिवाजों का ब्यौरा निहित हैं। लोकगीत आंचलिक संस्कृति के विद्यालय के हैं। जैसे वेदों का कोई लेखक नही हैं उसी प्रकार पारम्परिक लोकगीत किसके लिखे हुए हैं यह बताना कठीन है। लोकगीत सतत् परम्पराओं से प्रचलित एवम् पोषित होकर सदा जीवित रहते है।
लोक साहित्य किसी भी देश अथवा जन-समुदाय की स्वाभाविक चेतना, जीवन, विश्वास और संस्कृति का वास्तविक प्रतीक होता हैं। समाज की नानारूपेण प्रवृतियों का जिस रूप में चित्रण इस साहित्य में मिलता है। वह हमारे शिष्ट साहित्य में दुर्लभ है। मानव-जीवन मे क्रमिक विकास के साथ लोक-साहित्य अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ हैं। इसलिए लोक साहित्य की परम्परा भी मानव जीवन के उद्भव और विकास की तरह सुदीघZ है।
धीरेन्द्र वर्मा के अनुसार लोक मनुष्य-समाज का वह वर्ग हैं जो अभिजातीय संस्कार, शास्त्रीयता और पाण्डित्य की चेतना और पांडित्य के अहंकार से शून्य हैं और जो एक परम्परा के प्रवाह में जीवित रहता हैं। ऐसे लोक की अभिव्यक्ति में जो तत्व मिलते हैं। वे लोक तत्व कहलाते हैं
डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने निम्न पंक्तियों में `लोक´ और `शास्त्र´ के विभेद को बहुत ही सुन्दर ढंग से समझाया हैं- किसी व्रत, नियम या छन्द के भीतर बंध हुआ जो धार्मिक जीवन है वह शास्त्रीय या मार्गीय या नियमानुगत कहा जायेगा। किन्तु इसके अतिरिक्त जो शास्त्रीय सीमाओं और व्रतों से व्यक्तिरिक्त है जिसे अथर्ववेद के शब्दों में व्रात्य-जीवन कहेंगे, वह लोक-धरातल पर विकसित होने वाले समाज का विराट जीवन माना जायेगा।इसी `लोक´ के बीच भावनाओं का ज्वार लिये हुए काव्यमयी वाणी प्रस्फुटित होती है तो उसे `लोकगीत´ की संज्ञा दी जा सकती हैं क्योंकि गीत शब्द में व्युत्पत्ति `गा´ धातु से हुई हैं। संस्कृत में इसका अर्थ गायन से हैं। इसलिए जब रससिक्त उद्गार स्वत: स्फरणा से उद्भूत होते हैं तभी लोक-गीतों का जन्म होता हैं।
लोकगीत
लोकगीतों के के अध्ययनकर्ताओं ने लोकगीतों के उद्गम एवं सृजन सम्बंधी मान्यताओं के आधार पर इनकी विविध परिभाषाएँ दी है। व्यक्ति विशेष के मनोगत भाव जन-जीवन से प्रभावित होकर सामूहिक तत्वों के अनुरूप ढ़ल जाते हैं। इसलिए लोकगीतों के निर्माण का कारण व्यक्ति विशेष नहीं जन-समूह है। समाज विज्ञान एवं तत्व शास्त्र के विद्वानों ने आदिम समाज की मानसिक व सामाजिक प्रवृतियों का विशेषण करते हुए आदिवासियों द्वार गेय गीतों को लोकगीतों की संज्ञा दी है।
पाश्चात्य दृष्टिकोण
पाश्चात्य लोकगीतों के अध्ययनकर्ताओं ने लोकगीतों की निम्न परिभाषाएँ दी है-िग्रम ने कहा है कि लोकगीत वे हैं जो स्वत: उद्भूत होते हैं। लोकगीत आदिम मानव का स्वतोद्गीर्ण संगीत है।
राल्फ विलियम्स के अनुसार लोकगीत आदिम मानव का उल्लासमय संगीत है। गुफाओं में पनपते हुए मानव में जब थोड़ी बहुत बुद्धि आई और उसके आधार पर उसमें भावनाओं से अंकुर फूटे तो उन्हें व्यक्त करने के लिए उसने टेढ़े, सीधे अलाप लेना आरंभ कर दिया।
सैक्लोपिडिया इन ब्रिटानिका के अनुरूप लोकगीत मानव जाति के हृदय से अपने अभावों द्वारा अन्य प्रकृति प्रदत्त आवाज के द्वारा अचानक घुमड़ कर प्रकट होने वाला संगीत हैं, जो हृदय को हल्का करने के लिए भावों की अभिव्यक्ति के निमित्त बोलने की अपेक्षा गाकर गीतों द्वारा व्यक्त किया जाता हैं।
भारतीय दृष्टिकोण
श्री नरोत्तम स्वामी व स्वर्गीय सूर्यकरणपारीक के अनुसार आदिम मनुष्य हृदय के गानों का नाम लोकगीत हैं। मानव जीवन की उसके उल्लास की, उसकी उमंगों की, उसकी करूणा की, उसके रूदन की, उसके समस्त सुख-दुख की कहानी इसमें चित्रित हैं। काल का विनाशकारी प्रभाव इनपर नहीं पड़ता है। किसी की कलम ने इन्हें लेखबद्ध नहीं किया पर ये अमर हैं।
श्री राम नरेश त्रिपाठी के अनुसार ग्रामगीत प्रकृति के उद्गार है। इनमें अलंकार नहीं केवल रस है। छन्द नहीं केवल लय हैं। ग्रामीण मनुष्यों से स्त्री पुरूषों के मध्य में हृदय नामक स्थान पर बैठकर प्रकृति गान करती हैं। प्रकृति के वे ही गान ग्राम गीत है।
देवेन्द्र सत्यार्थी के अनुसार लोकगीत किसी संस्कृति के मुँह बोलते चित्र हैं।
देवेन्द्र सत्यार्थी के अनुसार निर्माता में निर्माण के अहं चैतन्य से शून्य होने पर लोकाभिव्यक्ति होती हैं।
श्री वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार गीत मानों कभी न छीजने वाले सोते हैं।
श्री बाबू गुलाबराय के अनुसार लोकगीतों के निर्माता प्राय: अपना नाम अव्यक्त रखते हैं और कुछ में वह व्यक्त भी रखता हैं, वह लोक भावना में अपना भाव मिला लेते हैं। लोकगीतों में होता तो निजीपन ही है किन्तु उनमें साधारणीकरण एवं सामान्यता कुछ अधिक रहती हैं।
शान्ति अवस्थी के अनुसार लोकजीवन में लोकगीतों की एक निरन्तर धारा अनादि काल से चली आ रही है। मेरे अपने विचार से ये लोकगीत मानव हृदय की प्रकृत भावनाओं की तन्मयता की तीव्रता अवस्था की गति हैं, जो स्वर और ताल की प्रधानता न देकर लय या धुन (ध्वनि) प्रधान होते हैं।
aaचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार gram गीत aaryetar सभ्यता के वेद हैं।
सदाशिवकृष्ण फड़के के अनुसार लोकगीत विद्यादेवी के बौद्धिक उद्यान के कृत्रिम फूल नहीं, वे मानों अकृत्रिम निसर्ग के श्वास-प्रश्वास है। सहजानन्द में से उत्पन्न होने वाली श्रुति मनोहरत्व से सिच्चदानन्द में विलीन हो जाने वाली आनन्दमयी गुफाए हैं।
कुन्ज बिहारीलाल के अनुसार लोकगीत लोगों के उस जीवन की प्रवाहात्मक अभिव्यक्ति हैं जो सुरम्य प्रवाहों से बाहर या अधिक रूप से आदिम अवस्था में हैं।
mahatma गांधी ने कहा कि लोकगीत समूची संस्कृति के पहरेदार हैं।

6 टिप्‍पणियां:

  1. राजस्थान की लोक संस्कृति को उभारता सुंदर लेख

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  2. बहुत सुंदर…आपके इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका ब्‍लाग जगत में स्‍वागत है…..आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्‍दी चिटठा जगत को समृद्ध करने और हिन्‍दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्‍त करेंगे …..हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।

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  3. सुंदर
    भावों की अभिव्यक्ति मन को सुकुन पहुंचाती है।
    लिखते रहि‌ए लिखने वालों की मंज़िल यही है ।
    कविता,गज़ल और शेर के लि‌ए मेरे ब्लोग पर स्वागत है ।
    मेरे द्वारा संपादित पत्रिका देखें
    www.zindagilive08.blogspot.com
    आर्ट के लि‌ए देखें
    www.chitrasansar.blogspot.com

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  4. हैलो, मैं ब्राजील से हूँ
    मैं अपनी साइट का आनंद लिया.
    बधाई हो

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Aapk Salah Ke liye Dhnyavad