शनिवार, 21 फ़रवरी 2009

निराली प्रतिभा है - `सूयकांत त्रिपाठी निराला´

मां भारती के मिन्दर में साधनारत होकर अपने तन-मन के प्रत्येक कण को आहूत करके कविता की सोंधी महक को महकाने वाले कलाकार यों तो अनेक हो गुजरे हैं, पर स्वाभिमान की उन्नत चट्टानों पर अडिग रहकर काव्य की फसल को अपने खून-पसीने से तिल-तिल, कण-कण अभिसिंचित करने वाला निराला कलाकार शतािब्दयों तक धरा की मांग और घुटन के बाद ही पैदा हुआ करता है। उस निराली प्रतिभा व व्यक्तित्व वाले कलाकार का नाम है - `सूयकांत त्रिपाठी निराला´।
आधुनिक युग के कवियों में महाप्राण निराला सदा निराले रहे है, उनके अपने ही शब्दो में - `देखते नहीं मेरे पास एक कवि की वाणी, कलाकार के हाथ, पहलवान की छाती और फिलासाफर के पैर है।´ उन्होंने अपने व अपने काव्य के सम्बंध में स्वयं की कह दिया था कि `आज मयूर-व्याल पूंछ से बंधे हुए हैं।´ उनको रूप सौन्दय और विद्रूपता दोनों से समान प्यार रहा है, एक ओर वे घोर अहम्वादी है और दूसरी ओर अपनी उदार मन: संवेदना के कारण पद-दलितों के हिमायती भी है।
इस बारे में नरेन्द शर्मा लिखते है - `वह तोड़ती पत्थर इलाहाबाद के पथ पर´ प्रगतिवादी होने के कारण मार्गी है व दूसरी और पत्थर तोड़-तोड़कर नये युग का मार्ग भी बनाती है।
उनके समग्र व्यक्तित्व का आंकलन करते हुए समीक्षक राजेश शर्मा ने लिखा है `उनमें जहां एक फक्कड की अलमस्ती थी वहीं दूसरी ओर सागर की गहन-गहराई भी। वसंत का मधुहास भी था और पतझड़ का रूदन भी। पावस का करूण स्राव थी और ग्रीष्म का उÌण्ड ताप भी। शिशिर की ठिठुरन भी थी तो शरद की अक्खतडता भी। झरनों का कल निनाद तो था ही, तूफानी नदी का तेज प्रवाह और बफाZनी घाटी का अपने अंतराल में समेटकर सो जाने वाला जमाव भी था। पक्षियों की मुक्त उडान, हरिणों की चंचलता, हाथी की मस्ती, सिंह की गर्जन भरी कूद और कलहंसों की ठूमक भी थी तभी तो उनके कृतित्व में सब गुणों का साक्षात्कार हो पाया है।´
साहित्य व साधना के बारे में निराला का विचार था - `साहित्य मेरे जीवन का उÌेश्य है, जीने का नहीं। यह सच है कि मैं जीता भी अपने साहित्य से हूं किन्तु वो मेरे जीवन का साधन-मात्र नहीं। जो मैं नहीं लिखना चाहता वह चाहे भूखों मर जाऊं न लिखूंगा और जो लिखना चाहता हूं, लाखों रूपयों के बदले में भी उसे न लिखने की बात न सोचूंगा।´ इसीलिए `निराला´ ने कविता के मूल स्वरूप में संवेदना को स्वीकारा है -
मैंने `मैं´ शैली अपनाई,
देखा एक निजी दुखी भाई।
दु:ख की छाया पड़ी हृदय में,
झट उमड़ वेदना आई।।
उन्होंने अपने काव्य में विभिन्न रूपों, आयामों एवं सन्दर्भों में स्वयं को मुखरित किया है। एक ओर जहां `विधवा´, `वह तोड़ती पत्थर´, `दान´, `भिक्षुक´ और `सरोज-स्मृति´ जैसी रचनाएं रचकर के सहज मानवीय करूणा और सहानुभूतियों को स्वरूप प्रदान किया है। वहीं `वन-बेला´, `जूही की कली´ और `अस्ताचल सूर्य´ जैसी मुग्ध स्वच्छंद कविताएं लिखकर उÌाम यौवन से जुड़ी छायावादी, प्रकृति प्रधान, Üाृंगारिकता को भी सजीव-साकार रूप प्रदान किया है।कविता `विधवा´ का प्रारम्भ बहुत ही करूण, सजीव एवं मार्मिक है -
`वह क्रूर काल ताण्डव की स्मृति रेखा सी,
वह टूटे तरू से छूटी लता सी दीन
दलित भारत की विधवा है।´`
सरोज-स्मृति´ में भी कवि की अविरल करूणा अन्दर तक भिगो देती है और महाप्राण निराला का अडिग, महाप्राण व्यक्तित्व जैस खण्ड-खण्ड होकर बून्द-बून्द हो जाना चाहता है -
`दु:ख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहै आज, जो नहीं
कही कन्ये! गत कर्मो का अर्पण,
कर, करता मैं तेरा तर्पण।
´सरोज (पुत्री) के तर्पण के बाद कवित कुछ क्रूर, कठोर चोट करता सा प्रगतिशील पथ पर अग्रसर हो जाता है तथा क्रान्तिकारी सा बनता प्रतीत होता है। जहां भी उन्होंने शोषण व्यवस्था पर कलम चलाई वहां प्रतीकों व बिम्बों के माध्यम से पूंजीपतियों पर प्रहार कर घृणा व कठोर व्यंग्य व्यक्त किए है- `अबे ! सुन बे गुलाब
भूल मत, गर पाई खुशबु रंगो आब।
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
डाल पर इतरा रहा है कैपिटलिष्ट।´
करूणा, व्यंग्य, आक्रोश के अतिरिक्त सौन्दर्य, प्रेम व Üाृंगार रस का भी खुलकर तथा जमकर वर्णन किया है। `जूही की कली´, `स्वप्न सुन्दरी´ इसके सशक्त उदाहरण है। जूही की कली की आरिम्भ पंक्तियां - `विजन उन वल्लरी पर सोती थी सुहाग भरी
स्नेह-स्वप्न-मग्न, अपल कोमल तनु-पराग-तरूणा
जूही की कली।´
दूसरी तरफ कवि का कई बार अन्त: मन: आतंकित हो, चीत्कार करता है। `राम की शक्ति पूजा´ में राम के माध्यम से अपनी पीडा व्यक्त करते है -
`दिक् जीवन जो पाता ही आया है विरोध
दिक् साधन जिनके लिए सदा ही किया शोध।´
कहीं-कहीं तो कवि निराला बिल्कुल जीवन को निस्सारता की कोटि में ले जाकर खडा कर देता है-
`स्नेह निझZर बह गया
रेत ज्यों तन रह गया।´
जहां महाप्राण निराला का भाव-पक्ष इतना सुदृढ़ है। भाव-प्रवण तथा प्रेरणास्पद है वहीं शिल्प भी अपने बंधन तोड़ता है। नवीन छन्दों में कविता बह उठती है, क्योंकि `मैं´ शैली अपनाते ही, झट वेदना उमड़ आई´ के कारण काव्य के बाह्य परिवेश ने सम्पूर्णता को पा लिया। कंचुकी के बंधन टूट गए क्योंकि `एक नया यौवन उतरता सा, जग को मुक्त प्राण कहने वाले कवि निराला ने घोषणा की कि `जब तक चरण स्वच्छंद नहीं रहते तब तक नुपूर के स्वर मन्द रहते है। फलत: निराला ने पूर्वाग्रह के बंधनों से मुक्त होकर एक स्वच्छन्द काव्य शिल्प हिन्दी संसार को दिया। निराला ने बिम्बों, प्रतीकों के माध्यम से भावों को सजीवता प्रदान की है, उदाहरण के लिए `राम की शक्ति पूजा´ का दृश्य `यह श्री पावन, गृहिणी उदार गिरिवर उरोज, सरि पयोधर ताना बाना तरू, फैला फल निहारती देवी।इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि दृश्य, अदृश्य सभी प्रकार के बिम्बों के विधान में कविवर निराला निपूण रहे हैं।समग्र आंकलन के आधार पर कहा जा सकता है कि कविवर निराला का काव्य शिल्प उÌाप्त एवं समृद्ध है। उनके व्यक्तित्व के समान ही वैविध्यपूर्ण एवं संघर्षशील है। उन्होंने अपने नये शिल्प विधान के बल पर जहां हिन्दी काव्य में विशेषत: छायावादी काव्य छन्दों की पायल उतारकर भावों की क्षितिज पर मुक्त नर्तन का परिवेश दिया, वहीं काव्य में नाद-सौन्दर्य एवं उच्चतम भाव भूमि को भी प्रतिपादित किया। कविता कामिनी को नवीन Üाृंगार एवं परिवेश तो प्रदान किया ही, उसे भावों की गहनता, भाषायी प्रौढता और बिम्बात्मकता भी प्रदान की। दार्शनिक, सांस्कृतिक क्षमताओं से सार्थक भी बनाया। इनका भाव जगत, शिल्प वैभव, निर्मल आकाश के समान गहरा नीला, व्यापक है, इस व्यापकता ने एक समूचे युगबोध को अपनी छाया से ढक कर रखा है। ऐसे युगकवि महाप्राण निराला को शत-शत वन्दन।

1 टिप्पणी:

  1. वास्तव मे निराले हे थे निराला जी
    कविता,गज़ल और शेर के लि‌ए मेरे ब्लोग पर स्वागत है ।
    http://www.rachanabharti.blogspot.com
    कहानी,लघुकथा एंव लेखों के लि‌ए मेरे दूसरे ब्लोग् पर स्वागत है
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    रेखा चित्र एंव आर्ट के लि‌ए देखें
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